तमिलनाडु में हिंदी की जड़ें

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  • सुरेश पंत (विद्यावारिधि)

भाषा की राजनीति खेलनेवाले और राजनीति की भाषा बोलनेवाले जैसा वातावरण बनाने का प्रयास प्रायः करते रहते हैं, उससे यह सहज ही विश्वास नहीं होता कि आज जहां से हिंदी-विरोध का स्वर मुखर हो रहा है, वहां हिंदी की जड़ें शताब्दियों पुरानी हैं। किंतु सत्य किसी के विश्वास-अविश्वास की अपेक्षा नहीं करता। इतिहास साक्षी है कि दक्षिण में हिंदी का प्रयोग शताब्दियों से होता आया है।

हिसाब-किताब हिंदी में
बहमनी राजाओं के बारे में कहा जाता है कि वे अपना हिसाब-किताब हिंदी में रखा करते थे। मराठों का हिंदीप्रेम प्रसिद्ध ही है, जो अपने चरमोत्कर्ष के दिनों में वर्तमान तमिलनाडु के बहुत बड़े भू-भाग के शासक थे। उनके साथ भी हिंदी तमिलनाडु में पहुंची।

डॉ. सुनीति कुमार चटर्जी का मत है, “यह साहित्य-धारा वर्तमान हिंदी और उर्दू-साहित्य का उत्पत्ति-स्थान है, जो उत्तर भारत से दक्षिण में जाकर प्रौढ़ बनी और फिर समग्र भारत पर दिल्ली की भाषा के सहारे इसका प्रभाव फैला। इससे धीरे-धीरे हिंदी भाषा-परिवार के अनेक शब्द दक्षिण भारतीय भाषाओं में प्रवेश होने लगे।”

मराठा शासक सर्बोजी महाराज का भाषा, साहित्य और कलाओं से प्रेम बहुत प्रसिद्ध है। उनका संग्रह तंजाऊर स्थित ‘सरस्वती महल’ आज भी विद्वानों का तीर्थ है। मराठों की विशेषता इस बात में भी है कि उन्होंने विजेता के रूप में भी अपनी मराठी भाषा को दूसरों पर लादने का प्रयत्न नहीं किया, वरन् मध्य देश की भाषा हिंदी को ही राष्ट्र-भाषा के रूप में स्वीकार किया। संभवतः वे हिंदी की सार्वभौमिक क्षमता से परिचित थे। आगे चलकर द्रविड़ क्षेत्र में ही हिंदी का एक नवीन रूप विकसित हुआ, जिसका श्रेय मुख्यतः उत्तर से गये मुसलमानों को दिया जाता है। यह रूप था, ‘दक्खिनी हिंदी’ जिसे भाखा या भाका भी कहा गया। डॉ. सुनीति कुमार चटर्जी का मत है, “यह साहित्य-धारा वर्तमान हिंदी और उर्दू-साहित्य का उत्पत्ति-स्थान है, जो उत्तर भारत से दक्षिण में जाकर प्रौढ़ बनी और फिर समग्र भारत पर दिल्ली की भाषा के सहारे इसका प्रभाव फैला। इससे एक लाभ यह भी हुआ कि धीरे-धीरे हिंदी भाषा-परिवार के अनेक शब्द दक्षिण भारतीय भाषाओं में प्रवेश होने लगे।”

वैष्णव-भक्ति-आंदोलन और दक्षिण के तीर्थ-स्थानों ने भी अपने ढंग से हिंदी का जड़ों का पोषण किया। वैष्णव-भक्ति आंदोलन के विषय में तो कहा जाता है कि वह दक्षिण भारत से उत्तर भारत आया।

हिंदी सीखने की लहर

स्वातंत्र्य-संघर्ष के दिनों दक्षिण में नहीं, संपूर्ण देश में हिंदी सीखने की लहर फैल गयी। गांधीजी की भाषा संबंधी विचारधारा से सभी आकृष्ट और प्रभावित हुए थे। १९१० में हिंदी-साहित्यसम्मेलन की स्थापना के बाद हिंदी का प्रचार-प्रसार अधिक व्यवस्थित और प्रभावकारी ढंग से होने लगा था। गांधीजी ने अपनी भाषा-विषयक धारणा को अनेक समकालीन विचारकों, लेखकों, नेताओं से परामर्श कर संपुष्ट कर लिया था। अत: सम्मेलन-मंच से उद्घोषित गांधी जी के विचारों का देश में बड़ा स्वागत हुआ। इसी सम्मेलन से दक्षिण में विधिवत हिंदी प्रचार करने की योजना बनी। तय हुआ कि प्रतिवर्ष कम से कम छह दक्षिण भारतीय युवकों को प्रयाग बुलाकर हिंदी सिखायी जाए और इतने ही हिंदी भाषी युवक दक्षिण जाकर, हिंदी सिखायें और स्वयं भी दक्षिण भारतीय भाषाएं सीखें। गांधीजी के विचारों को दक्षिण में प्रबल समर्थन मिला। कुछ दक्षिण भारतीय युवकों ने गांधीजी को पत्र लिखकर तुरंत हिंदी सिखाने की व्यवस्था करने का आग्रह किया, जिसके कारण गांधीजी ने अपने कनिष्ठ पुत्र, अठारह वर्षीय देवदास गांधी को मद्रास भेज दिया।

मार्च, १९१८ में इंदौर सम्मेलन हुआ, इसमें देवदास गांधी द्वारा संचालित हिंदी कक्षा का मद्रास में उद्घाटन हुआ। ब्रॉडवे स्थित होमरूल लीग के कार्यालय में आयोजित उद्घाटन समारोह के अध्यक्ष थे डॉ. सी. पी. रामास्वामी अय्यर और उद्घाटनकर्ता थीं श्रीमती ऐनी बेसेंट। देवदासजी की हिंदी कक्षाओं में मद्रास के अनेक सुप्रसिद्ध व्यक्ति आ जुटे, जिनमें उच्च न्यायालय के न्यायाधीश श्री सदाशिव अय्यर, प्रसिद्ध वकील वेंकटराम यात्री, के. भाष्यम् अयंगार, एन. एस. अय्यर, श्रीमती अंबु जम्माल, श्रीमती दुर्गा बाई आदि प्रमुख थे। हिंदी प्रचार कार्य की प्रशंसा और समर्थन ‘न्यू इंडिया’, हिंदू’ और ‘आनंद विकटन’ जैसे पत्रों ने किया। देखते ही देखते अनेक युवक गांधीजी की प्रेरणा से दक्षिण जाकर हिंदी की कक्षाएं चलाने लगे।

हिंदी-प्रचारक-विद्यालय सर्वप्रथम १९२२ में रामस्वामी नाइक्कर के निवास पर खोला गया। अपने अंतिम दिनों में हिंदी के कट्टर विरोधी राजाजी भी हिंदी के प्रबल समर्थक थे।

जब राजाजी ने लिखा

हिंदी-प्रचारक-विद्यालय सर्वप्रथम १९२२ में रामस्वामी नाइक्कर के निवास पर खोला गया। अपने अंतिम दिनों में हिंदी के कट्टर विरोधी राजाजी भी हिंदी के प्रबल समर्थक थे। १९३० में ‘हिंदी प्रचारक’ नामक पत्र में राजाजी ने लिखा था, ‘प्रत्येक छात्र का यह कर्तव्य है कि वह अपने अवकाश के समय का उपयोग राष्ट्रभाषा सीखने के लिए करे। राष्ट्र-भाषा, शिक्षा पाठ्यक्रम का अनिवार्य अंग होनी चाहिए। शिक्षा के अधिकारी जब तक यह नहीं करते, तब तक अपनी मदद हमें आप करनी चाहिए।’ १९३७ के हिंदी विरोधी आंदोलन में यह हिंदी-समर्थन राजाजी के लिए बड़ा शिर-दर्द बना था।

अनेक बुद्धिजीवियों के द्वारा हिंदी को सक्रिय समर्थन दिया जा रहा था। ऐनी बेसेंट और राजाजी जैसे सुविज्ञ लेखक और विचारक इसके समर्थक थे ही। तमिल महाकवि सुब्रह्मण्यम् भारती ने बनारस और प्रयाग में रहकर हिंदी का अध्ययन किया था, वे हिंदी के प्रचार के प्रति गहरी सहानुभूति रखते थे। एक अन्य कवि मुरुगनार ने हिंदी समर्थन में लिखा था, ‘जिस दिन सभी भारतवासी गौरव से चुनी हुई साझा भाषा हिंदी का प्रयोग सरलता और प्रसन्नतापूर्वक करने लगेंगे, उसी दिन हमें सच्चा स्वराज्य प्राप्त होगा। इसी भावना का परिणाम था कि १९३६ तक कोई छह लाख दाक्षिणात्य हिंदी सीख चुके थे।

एक गैर-सरकारी प्रस्ताव के प्रसंग में संसद में  प्रधानम‌ंत्री नेहरू के कथन, जिसे अब आश्वासन कहा जाता है, और १९६३ के भाषा अधिनियम ने, भाषा के प्रश्न को उलझा दिया।

हिंदी विरोध पहले भी

दक्षिण में हिंदी-विरोध की प्रवृत्ति यद्यपि उतनी पुरानी तो नहीं, जितनी हिंदी-समर्थन की है, फिर भी इसे सर्वथा नवीन प्रवृत्ति भी नहीं कहा जा सकता। यह अवश्य है कि सर्वप्रथम हिंदी के प्रति संदेह तमिल-भाषियों के मन में नहीं, वरन कन्नड़-भाषियों और उसके बाद तेलुगु भाषियों के मन में उत्पन्न हुआ था। बात वस्तुतः यह थी कि हिंदी प्रचारकों को समाज में बड़ा सम्मानित स्थान प्राप्त था। उन्हें गांधीजी का सीधा प्रतिनिधि समझा जाता था। परिणामस्वरूप कुछ प्रचारक अत्युत्साह में ऐसे कार्य करने लगे, जिससे यह शंका होने लगी कि हिंदी प्रचार के आगे मातृभाषा की चिंता नहीं की जाती। कन्नड़-साहित्य-परिषद् और तेलुग के सुविख्यात लेखक श्रीपाद सुब्रह्मण्यम् शास्त्री ने प्रारंभ में हिंदी के विरोध में आवाज उठायी, उनका कहना था-इससे प्रांतीय भाषाओं दमन हो जाएगा।

यह स्पष्टतः प्रांत धारणा थी, फिर भी दक्षिण-भारत हिंदी-प्रचार-सभा ने, हिंदी प्रचारकों को क्षेत्रीय भाषाओं को ओर भी प्रेरित किया और हिंदी-अध्ययन के लिए परीक्षा में हिंदी के साथ-साथ मातृभाषा को भी अनिवार्य कर दिया। इसके अनुकूल परिणाम हुए और हिंदीप्रचार यथावत होता रहा।

१९३७ में राजाजी कांग्रेस-मंत्रिमंडल के प्रधानमंत्री बने, उन्होंने शिक्षा के क्षेत्र में दो क्रांतिकारी कदम उठाये : शिक्षा का माध्यम अंगरेजी के बदले मातृभाषा कर दिया गया; सभी स्कूलों में हिंदी की पढ़ाई अनिवार्य कर दी गयी। ये कदम विरोधियों को पसंद नहीं आये। इसमें गांधीजी के अतिरिक्त काका कालेलकर, डॉ. सीतारामैय्या, सरोजिनी नायडू आदि ने भी राजाजी का समर्थन किया। आग जैसे भड़की थी, वैसे ही शांत भी हो गयी।

१९६५ के आंदोलन से सभी लोग परिचित हैं। यह विरोध कुछ तो शासन की शिथिलता और कुछ लोगों में व्याप्त भय एवं आशंकाओं का लाभ उठाकर उभारा गया। वस्तुतः १९५० में संविधान में विधिवत हिंदी का उल्लेख करा देने के बाद, पंद्रह वर्षों की अवधि में हिंदी को सशक्त बना देने की दिशा में न त्वरित कार्य हुआ, न आवश्यक तैयारी। सरकारी क्षेत्रों में अनिश्चितता का वातावरण था। ज्यों-ज्यों १९६५ पास आता गया, यह अनिश्चय बढ़ता गया। अहिंदी भाषी सरकारी कर्मचारी मन से चाहे हिंदी के समर्थक न रहे हों, किंतु अधिकाधिक संख्या में हिंदी सीखने लगे थे।

एक गैर-सरकारी प्रस्ताव के प्रसंग में संसद में श्री नेहरू के कथन, जिसे अब आश्वासन कहा जाता है, और १९६३ के भाषा अधिनियम ने, भाषा के प्रश्न को उलझा दिया। किसी ने यह भी नहीं पूछा कि किसी प्रधानमंत्री को संविधान की आत्मा के विरुद्ध आश्वासन देने का अधिकार भी है या नहीं। हिंदी-विरोधी तत्वों को इससे शह मिली; ‘अब या कभी नहीं’ की मनःस्थिति में आंदोलन छेड़ दिया गया।

एक प्रधानमंत्री के विवादास्पद आश्वासन को कानून में बदलने की घोषणा, दूसरे प्रधानमंत्री ने कर दी।

फिर भी हिंदी आगे बढ़ी है

इसके बावजूद ऐसा नहीं है कि दक्षिण ने हिंदी का बहिष्कार कर दिया हो। पिछले तीन दशकों में धीरे-धीरे ही सही, किंतु निश्चित गति से हिंदी आगे बढ़ी है। अनेक अज्ञात-प्रचारकों और जाने-माने लेखकों ने समानरूप से हिंदी की जड़ें सींची हैं। स्व. डॉ. रांगेय राघव, डॉ. मलिक मोहम्मद, डॉ. न. वी. राजगोपालन, आर. शौरिराजन आदि ने महत्त्व पूर्ण योगदान दिया है। एकदम नवीन पीढ़ी के अनेक हस्ताक्षर भी इस कार्य में जुटे हैं। उन्हें हिंदी का लादा जाना’ -जैसी किसी क्रिया का कोई अनुभव नहीं होता । तमिलनाडु में हिंदी की जड़ें गहरी होने का सबसे बड़ा प्रमाण तो यही है कि १९३७ और १९६५ में दो बार हिंदी के विरुद्ध तीव्र विद्वेष की भावना भड़काने के बावजूद, आम तमिलजन हिंदी को मुख्य राष्ट्रीय भावधारा से जुड़ने के माध्यम के रूप में जानता है।

दक्षिण भारत में हिंदी के प्रति उत्साह
भारत सरकार के शिक्षा मंत्रालय से संबंधित केंद्रीय हिंदी निदेशालय, पिछले कुछ वर्षों से अंगरेजी माध्यम द्वारा पत्राचार से हिंदी सिखा रहा है। इसका सर्वाधिक प्रचार दक्षिणी राज्यों, विशेषकर तमिलनाडु में है। वर्ष १९७८ में केंद्रीय हिंदी निदेशालय द्वारा संचालित, सभी हिंदी पाठ्यक्रमों में कुल २१,००० छात्र सम्मिलित हुए, जिनमें दो प्रतिशत छात्र विदेशी और पैतालीस प्रतिशत छात्र केवल तमिलनाडु से थे। वर्ष १९७८ में ही अखिल भारतीय स्तर पर ली गयी ‘हिंदी-प्रवेश’ परीक्षा में सर्वप्रथम स्थान प्राप्त करनेवाला छात्र मलयालम-भाषी और द्वितीय स्थान प्राप्त करनेवाला छात्र तमिल-भाषी था। ‘हिंदी-परिचय’ परीक्षा में भी सर्वप्रथम स्थान तमिल-भाषी छात्र ने ही प्राप्त किया। इस छात्र ने कुल पचासी प्रतिशत अंक प्राप्त किये।

ये आंकड़े बताते हैं कि दक्षिण भारतीय लोग हिंदी सीखने के लिए कितने व्यग्र हैं। हिंदी सीखने में उनको बढ़ती रुचि के कारण पत्राचार का माध्यम अब अंगरेजी के अतिरिक्त तमिल और मलयालम भी कर दिया गया है।

कहते हैं, एक बार राजाजी से पूछा गया कि दक्षिण में हिंदी के प्रति आम लोगों की क्या धारणा है ? राजाजी ने उत्तर दिया, “जितना सम्मान और स्नेह नयी दुल्हन को ससुराल में मिलता है, उतना ही सम्मान और स्नेह हिंदी को मेरे राज्य में मिल रहा है।”

 

जनकपुरी, नयी दिल्ली, भारत।

(पंत जी बहुभाषाविद्, समालोचक, वैयाकरण, हिंदी भाषा साहित्य के विद्वान् एवं अन्वेषक हैं)

  • सन् १९७९ अक्टुबर कादम्बिनी साहित्यिक पत्रिका से साभार

 

 

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